चाँद का कुर्ता: एक प्यारी कहानी

चाँद का कुर्ता रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित एक प्रसिद्ध बाल कविता है। यह कविता एक चाँद के बारे में है जो ठंड से परेशान होकर अपनी माँ से एक कुर्ता सिलवाने के लिए कहता है। माँ चाँद के अनुरूप कुर्ता सिलवाने में असमर्थ होती है क्योंकि चाँद का आकार हर रात बदलता रहता है।

चाँद का कुर्ता : Chand Ka Kurta

हठ कर बैठा चाँद एक दिन, माता से यह बोला,
‘‘सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।

सनसन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ,
ठिठुर-ठिठुरकर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।

आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का,
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।’’

बच्चे की सुन बात कहा माता ने, ‘‘अरे सलोने!
कुशल करें भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने।

जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ।

कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा।

घटता-बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है,
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है।

अब तू ही ये बता, नाप तेरा किस रोज़ लिवाएँ,
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आए?’’

 कविता का सार:

कविता की शुरुआत चाँद के ठंड से परेशान होने से होती है। वह अपनी माँ से एक ऊनी कुर्ता सिलवाने के लिए कहता है ताकि वह ठंड से बच सके। माँ चाँद की बात मान लेती है और उसके लिए कुर्ता सिलवाने का प्रयास करती है।

लेकिन, माँ को जल्द ही एहसास होता है कि चाँद का आकार हर रात बदलता रहता है। कभी वह छोटा होता है, तो कभी बड़ा। ऐसे में उसके लिए एकदम सही नाप का कुर्ता सिलवाना असंभव था।

माँ चाँद को समझाती है कि वह उसके लिए कुर्ता नहीं सिलवा सकती क्योंकि उसका आकार लगातार बदलता रहता है। चाँद थोड़ा निराश होता है, लेकिन फिर भी वह अपनी माँ की बात मान लेता है।

कविता की शिक्षा:

यह कविता हमें सिखाती है कि हर समस्या का समाधान नहीं होता। कुछ चीजें हमारे नियंत्रण से बाहर होती हैं और हमें उन्हें स्वीकार करना सीखना चाहिए।

यह कविता बच्चों को प्रकृति की अनोखी रचनाओं के बारे में भी सिखाती है। चाँद का आकार बदलना प्रकृति का एक चमत्कार है और हमें इसकी सुंदरता को स्वीकार करना चाहिए।

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